आँसुओं का काव्य
जैसे-जैसे मेरा ध्यान गहराता गया मैंने अपने अंदर एक अद्भुत चीज़ को घटते देखा । वह चीज़ कुछ अजीब भी थी । होता यूँ था कि कभी मैं किसी पक्षी को उड़ते देखूँ या शायरी की कुछ पंक्तियाँ सुन लूँ या संगीत की कोई धुन और अचानक मेरी आँखे भर आती थीं । कुछ भी गहरा सा छूकर गया और आँखें भर गयीं । और यह सब अजीब इसीलिए लगता था क्योंकि इसके पहले तक मुझे हमेशा यही लगता रहा था कि आँसू दुःख के परिचायक होते हैं । जब जीवन में कोई हानि होती है, कोई खो जाता है, कोई नुक़सान होता है, तब हम रोते हैं । पीड़ा होती है तो रोते हैं । हाँ, ये बात ज़रूर सुनी थी कि आनंद के आँसू होते हैं । लेकिन बस सुना ही था । अब जैसे सैंकड़ों चीज़ें सुनी हुईं हैं कि प्रेम होता है, परमात्मा होता है, आनंद होता है । सुना तो बहुत कुछ था । लेकिन आनंद के आँसू होते कैसे हैं यह उस दिन जाना । इतनी मिठास थी उनमें, इतनी मधुरता !

उससे भी ज़्यादा अजीब बात यह थी कि जब आँसू बहते थे तो मैं उनका साक्षी होता था, दृष्टा । एक दूरी होती थी आँसुओं में और मुझमें । आँसू बह रहे होते थे और मैं उनको देख रहा होता था । इसीलिए यह भी बात समझ आई कि वो भावुकता के आँसू नहीं थे । वो आँसू उस एक आयाम से आ रहे थे जो कि ह्रदय के भी पार है । एक ऐसे जगत के आँसू जो भावों के पार है ।

शुरू में, ज़ाहिर सी बात है, रोना थोड़ा अटपटा लगता था । लेकिन धीरे-धीरे जब आँसुओं की मधुरता गहराने लगी, तब एक बात और समझ आई कि यह ध्यान के कारण ही हुआ । ध्यान करने से अहम् विलीन हो जाता है । और जिस क्षण अहम् विलीन होता है हम एक आनंद के सागर को अपने अंदर महसूस कर पाते हैं । असली, सच्चा सागर, कल्पना का सागर नहीं । सागर का अर्थ ही है जो समा न पाए कहीं । सागर का अर्थ ही है असीम । इसीलिए जिस क्षण हम उस असीम सागर को अपने अंदर महसूस करते हैं वह सागर शरीर के अंदर समा नहीं सकता । वह बाहर उमड़ता है, बाहर बहना चाहता है । और कहाँ से बहेगा ? वह केवल आँखों के रास्ते ही बाहर निकलता है । आप जितना ध्यान में गहराएँगे, उतने तरल होते जाएँगे, एक बहाव महसूस करेंगे अंदर । और फिर अकस्मात् ही, बिना किसी कारण के, निष्प्रयोजन ये आँसू बहने लगेंगे । और जब कभी ऐसा हो तो बहिए । आँसुओं को बहने दीजिए और उसके साथ स्वयं बहिए ।